News Agency : पश्चिम बंगाल वह राज्य रहा है जहां करीब तीन दशक तक कम्युनिस्टों का एकछत्र राज रहा है। यह खत्म हुआ 2011 में जब तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने वामदलों को करारी शिकस्त दी और ममता बनर्जी राज्य की मुख्यमंत्री बनीं। इसके साथ एक तरह से इस राज्य में वामपंथ का पराभव शुरू हुआ जो अभी भी लगातार जारी है। 2016 के विधानसभा चुनाव में भी टीएमसी को जीत मिली और वामदल ऐसा कुछ नहीं कर सके जिससे लगता कि वह अपनी वापसी के लिए कुछ कर रहे हैं। बीते 2014 के लोकसभा चुनाव में भी कम्युनिस्टों को बड़ी हार का सामना करना पड़ा था। तब उसे मात्र दो सीटें मिल सकी थीं। लेकिन इसी बीच राज्य में बीजेपी ने भी खुद को मजबूती से खड़ा करना शुरू किया। इस चुनाव में तो भाजपा खुद को टीएमसी के समक्ष बड़ी चुनौती के रूप में पेश कर रही है। कम्युनिस्टों के समय कांग्रेस जरूर राज्य की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी। फिलहाल उसकी स्थिति भी तीसरे-चौथे स्थान जैसी बनकर रह गई है। इस सबके बीच कम्युनिस्टों को लेकर दो तरह की बातें की जा रही हैं जिनका लब्बोलुआब यह लगता है कि वह लगातार कमजोर होती जा रही है। पहली तो यह कि बीते पांच चरणों के दौरान यह पाया गया कि कम्युनिस्ट और उसमें भी सीपीएम के समर्थक काफी संख्या में बीजेपी के पाले में जाते नजर आ रहे हैं। दूसरा यह कि खुद माकपा संभवतः अभी तक यह नहीं तय कर सकी है कि उसका प्रतिद्वंद्वी नंबर टीएमसी है अथवा बीजेपी। इन परिस्थितियों की वजह से ही शायद कार्यकर्ताओं में व्याप्त असमंजस की वजह से वे बीजेपी की ओर रुख करने लगे हैं। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह बताया जा रहा है कि बीते करीब एक दशक की सियासी हलचलों में सीपीएम ने टीएमसी को अपना प्रमुख प्रतिद्वंद्वी घोषित कर रखा है। इन हालात में स्वाभाविक है कि कार्यकर्ता और समर्थक टीएमसी के करीब वैसे भी नहीं जाएंगे। फिर उनके पास विकल्प क्या बचता है। वे कांग्रेस के भी करीब नहीं जा सकते क्योंकि वह पहले से कम्युनिस्टों की घोषित दुश्मन रही है। अब तो राज्य में उसकी उस तरह की कोई ताकत भी नहीं है। ऐसे में बचती केवल बीजेपी है जो टीएमसी और ममता बनर्जी के खिलाफ बिगुल फूंके हुए हैं। इसी आधार पर ऐसा प्रोजेक्शन भी किया जा रहा है कि मुख्य मुकाबले में यही दोनों पार्टियां हैं। हालांकि बहुत सारे लोगों का यह भी कहना है कि राज्य में केवल टीएमसी ही ताकत है और ज्यादा संभावना इसकी जताई जा रही है कि वह सभी पर भारी पड़ सकती है। इसे इस रूप में समझा जा सकता है कि पूरा माकपा नेतृत्व लगातार यह कहता रहा है कि उसके लिए बीजेपी दुश्मन नंबर वन है। लेकिन जब भी बात पश्चिम बंगाल की आती है, यह पूरी तरह बदल जाता है। तब सीपीएम टीएमसी के आगे नहीं बढ़ पाती। राज्य में कांग्रेस के साथ कम्युनिस्टों का गठबंधन न होने के पीछे के कारणों में एक बड़ा कारण यह भी माना जाता रहा है कि सीपीएम टीएमसी को लेकर किसी तरह का लचीला रवैया अख्तियार करने को तैयार नहीं थी। जबकि उस समय यह तर्क रखा जा रहा था कि अगर भाजपा को हराने के लिए उत्तर प्रदेश में एक दूसरे की धुर विरोधी बसपा और सपा साथ आ सकते हैं, तो पश्चिम बंगाल में टीएमसी, सीपीएम और कांग्रेस का कोई गठबंधन क्यों नहीं हो सकता। कारण चाहे कुछ भी रहे हों, लेकिन सीपीएम और कांग्रेस के बीच भी कोई गठबंधन नहीं बन पाया। अब वहां से जिस तरह की खबरें आ रही हैं उनसे यह पता चल रहा है कि सीपीएम के समर्थक-कार्यकर्ता चूंकि टीएमसी के साथ नहीं जा सकते, इसलिए बीजेपी के साथ चले जा रहे हैं। यह हो भी सकता है, क्योंकि बीते पंचायत चुनावों के दौरान भी इस तरह की खबरें आ रही थीं कि टीएमसी को शिकस्त देने के लिए सीपीएम और बीजेपी के बीच कोई अंदरूनी समझौता हुआ है। इसकी सच्चाई के बारे में कोई पुख्ता प्रमाण भले ही किसी के पास न हो, लेकिन इससे एक संदेश तो जरूर ही चला गया। अभी हाल में कुछेक खबरें भी इसकी पुष्टि करती नजर आती हैं। अब जैसे कुछ दिन पहले ही पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने ‘गणशक्ति’ को दिए एक साक्षात्कार में लोगों को चेताया था कि बीजेपी के साथ जाने का कोई फायदा नहीं होने वाला है। इस साक्षात्कार में उन्होंने यह भी बताने की कोशिश की थी कि राज्य और लोगों के लिए टीएमसी की तुलना में बीजेपी को ज्यादा नुकसानदेह मानना चाहिए। लेकिन सीपीएम का नेतृत्व शायद अपने पूर्व मुख्यमंत्री के विचारों से अभी भी सहमत नहीं लगता और अभी भी उसके लिए टीएमसी ही सबसे दुश्मन लगती है। माना जा रहा है कि इसका बड़ा नुकसान सीपीएम को उठाना पड़ सकता है। राजनीतिक हलकों में इस आशय की चर्चाएं भी हैं कि कम्युनिस्ट गलतियां करने के अभ्यस्त हैं और बड़े से बड़े नुकसान के बावजूद कुछ सीखने को कभी तैयार नहीं होते हैं। इस चुनाव में भी वह वही कर रहे हैं जो अक्सर करते आए हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि 2011 में सत्ता गंवाने के बाद से सीपीएम राज्य में लगातार कमजोर होती चली जा रही है। ऐसा तब हो रहा है जब वह 1977 से लगातार वहां सत्ता में रही है। 2011 के विधानसभा चुनाव में सीपीएम का मत प्रतिशत 39 फीसदी से ज्यादा था जो 2016 में घटकर करीब 26 प्रतिशत रह गया था। जहां तक बीजेपी की बात है 2011 के विधानसभा चुनाव में उसका मत प्रतिशत चार प्रतिशत था जो 2016 में बढ़कर 10 प्रतिशत से ज्यादा हो गया। लोकसभा चुनावों में भी बीजेपी का मतप्रतिशत 2009 के छह प्रतिशत से बढ़कर 2014 में 17 प्रतिशत पहुंच गया था। इसके विपरीत वामदलों का 2009 में रहा 42 प्रतिशत मत 2014 में 30 प्रतिशत हो गया। साफ है कि कम्युनिस्ट कमजोर होते रहे और बीजेपी मजबूत होती रही। इस चुनाव में तो बीजेपी पूरा जोर लगाए हुए कि किसी भी तरह से पश्चिम बंगाल में मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई जा सके। इसीलिए कहा जा रहा है कि अगर ऐसा होता है, तो यह सीपीएम या कम्युनिस्टों की वजह से ही होगा। हालांकि ऐसा मानने वाले भी कम नहीं हैं जो यह कहते हैं कि राज्य में बीजेपी ममता बनर्जी की वजह से मजबूत हो रही है। कारण कुछ और हों, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पश्चिम बंगाल पर वामदलों की पकड़ कमजोर होती जा रही है और बीजेपी मजबूत होती जा रही है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि क्या इसके बाद भी सीपीएम और अन्य वामदल कुछ सबक सीखेंगे अथवा पुरानी गलतियां दोहराते ही रहेंगे?
Related posts
-
आजकल बाल दाढ़ी रखना भी एक अलग अंदाज है।
पुराने समय में, लोगों को बहुत बड़ी दाढ़ी पसंद नहीं थी। लेकिन अब यह एक ट्रेंड... -
पुलिस प्रेक्षक व व्यय प्रेक्षक ने संयुक्त रूप से किया चेक पोस्ट का निरीक्षण
धनबाद: पुलिस प्रेक्षक राजेन्द्र कुमार ग. दाभाडे तथा व्यय प्रेक्षक आर.ए. ध्यानी ने मंगलवार को संयुक्त... -
मतदान के लिए सभी पोलिंग पार्टियां हुईं रवाना
धनबाद के छह विधानसभा के लिए मतदान कल सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक...